एक मजदूर की लड़की से ,
मालिक की लड़की ने पूछा ,
कोई द्वेष नहीं था मन में ,
बचपन की मासूमियत से उसने पूछा ।
क्यों तू सुबह से श्याम ,
मिटटी में है खेलती ,
यह फटे पुराने कपडे छोड़ ,
क्यों तुम अच्छे कपडे नहीं पहनती ।
देख मेरी यह लाल जूती ,
मेरी लाल ड्रेस से है मिलती ,
इन लाल कंगनों को पहन ,
देख में हूँ कितनी खिलती।
रोते हुए मजदूर की लड़की ,
अपनी माँ के पास जाती है ,
सिसकती हुई बेटी की व्यथा सुन ,
माँ उसे रस्ते का एक गड्ढ़ा दिखती है।
माँ, बेटी के आँसूं पोछ , उस्को यह बतलाती है,
जिनं गड्ढों पर हमारी गाडी झूलती रह जाती है,
उन् गड्ढो का तो उन्हें पता ही नहीं चलता ,
चुप होजा बेटी , किस्मत पर किसिका जोर नहीं चलता।